बुधवार, 4 मई 2016

लघुकथा – फर्ज

लघुकथा  फर्ज

रेशमा और पिताजी के बीच सुबह-सुबह ही काफी बहस हो गई थी | पिताजी के बाजार चले जाने के बाद मां ने रेशमा को समझाने के अंदाज में डांटते हुए कहा- ‘’ रेशमा तुझे कितनी बार समझाया कि अपने पापा से जुबान मत लड़ाया कर | पर तू मानने से रही | मैं देख रही हूँ कि तमीज के नाम पर तू दिनों-दिन मर्यादा को लांघती जा रही है |’’
‘’ मम्मी पहले पापा को समझाओ वो मुझसे कैसे – कैसे सवाल करते हैं |’’रेशमा पैर पटकते हुए बोली |
‘’ भला ऐसा कौन –सा प्रश्न कर दिया उन्होंने तुझसे ?’’
‘’ यही कि तू कल कॉलेज में जिस लडके के साथ घूम रही थी , वो कौन है ?रोजाना पार्क में क्यों जाती है ?और भी कई उलटे-सीधे सवाल ?’’
‘’ तो क्या हुआ....वो तेरे पिटा हैं | तुझ जैसी जवान कुँवारी लड़की की खोज-खबर रखना उनका फर्ज है | ज़माना ठीक नहीं है |’’
‘’ तो क्या केवल कुँवारी लड़की की ही खोज-खबर रखना उनका फर्ज है ? अगर शादी-शुदा होती और गलत कदम उठाती तो क्या मुझसे नजरें चुरा लेते ?क्या केवल कुंवारी लड़कियां ही गलत रास्ते पर जा सकती हैं | शादी-शुदा नहीं ?’’
रेशमा ने मां के सामने प्रश्नों की झड़ी लगा दी थी | प्रश्नों के बोझ तले झुक  चुकी थी | आखिर वे भी एक प्राइवेट कम्पनी में क्लर्क हैं , जहां पुरुष कर्मचारियों की भीड़ अधिक है .....|


सुनील कुमार ‘’सजल’’ 

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