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शनिवार, 5 मार्च 2016

व्यंग्य – बसंतागमन और हम

व्यंग्य – बसंतागमन और हम

यूँ तो हमने जीवन के छत्तीस बसंत लल्लुओं की तरह गुजार दिए पर कभी महसूस नहीं हुआ कि हमने बसंत को कभी बसंत की तरह जिया भी हो | कारण सीधा सा हमें यही लगा कि हमारी जन्मकुंडली में उस बेवकूफ ज्योतिषी ने लिख रखा था, ‘’ दाम्पत्य जीवन के लड़खड़ाते सुख के अलावा नंबर दो वाले सारे प्रेम प्रसंग असफल रहेंगे |’’
शायद कारण यही रहा कि जीवन में प्रेमिकाएं तो नहीं आई | आई तो पत्नी , वह भी सावन की घटा की तरह बवंडर मचाने वाली , जिसे हम आज भी ‘’ बाढ़ग्रस्त ‘’ इलाके की तरह झेल रहे हैं |
बसंत ऋतू में कदम रखते ही ठण्ड कुनकुनी और मौसम ब्यूटी पार्लर से सज-धज कर निकली युवती के गालों की तरह आकर्षक गुलाबी हो चला था | चलती पुरवाई गोरी के होठों की छुअन की तरह तन-मन को सहला रही थी | फिर भला इस ‘’ बासंती काल’’ में हमारी दिलफेंक इंसान वाली तबीयत कब तक मुरझाये फूल की तरह रहती | उसमें भी तो बासंती रंगत आना स्वाभाविक था |
  हमने पत्नी से कहा –‘’ सुनो प्रिये बसंत (ऋतु)आ गई |’
वे बोली –‘’ कौन बसंत ?’
‘’अरे ...बसंत भई बसंत |’
‘’दफ्तर की नई क्लर्क ?’’
‘’ नहीं यार |’’
‘’नई किरायेदार पड़ोसन ?’’
‘ अरे नहीं यार |’’
‘ तो दफ्तर में नई महिला चपरासी ?’
‘’ तुम भी अच्छे भले मूड के दौर में दिमाग के कोने में कचरे का ढेर लगाने वाली बात कराती हो |’’
‘’ तो सीधे-सीधे बताते क्यों नहीं | खबर में पात्र का नाम छिपाने वाले संवाददाता की तरह क्यों पेश आ रहे हो ?’’
पत्नी ने भी धाँसू जवाबी प्रश्न किया | ‘’ अरे भई, मैं तो बसंत ऋतु की बात कर रहा हूँ | किसी बाहर वाली ‘ करंट ‘’ की नहीं |’
‘’ वो तो ऋतु है , आज भी आई है, अगले साल भी आएगी मगर अपने आपमें गैदा से गुलाब क्यों बने जा रहे हो ?’’
‘’ मेरा मतलब सालभर तो तुम बिजली और घटा की तरह कड़कती और बरसती हो मुझ पर , कम से कम इस मौसम में गुलाबी कोंपलों की तरह जुबान व मन में नारामिन लाकर मदमस्त प्यार दो मुझे ताकि लगे कि अपना दाम्पत्य जीवन भी कहीं से नीम की पट्टी की तरह कड़वा नहीं है |’’
‘’ तो इतने दिनों तक गिलोय चूर्ण फांक रहे थे क्या ?’’
‘’ तुम तो ज़रा सी बात में तुनक जाती हो ... मेरा कहने का मतलब सालभर न सहीं , कम से कम इस ऋतु को पूरी गुलाबी तबियत से जियें |’’
‘ तो क्या अब तक रेगिस्तान की तरह जी रहे थे ?’’
‘’ अरे नहीं यार ...प्यार में डूबकर जिए |’’
‘’ क्यों ? अभी तक कहाँ डूबे थे , गाँव की तलैया में भैंस की तरह ? और ये तीन बच्चे ऐसे ही आ गए ?’
‘’ अरे बाबा , मैं शक की गुंजाइश से नहीं देख रहा | मैं कहना चाह रहा हूँ कि इतना प्रेम रस पीएं कि हमें लगे , जैसे हमारा दाम्पत्य जीवन एक मिसाल है |’
‘’शादी के दस साल बाद मिसाल बनने की फ़िक्र लगी है ... जाओ उधर और कागज़ पर कलम घसीटकर बसंत में दाम्पत्य प्रेम पर लेख रचना कर मिसाल बनाओ |’
‘’ अरे पगली , तुम जानती नहीं कि यह मानव प्राणी के लिए प्रकृति द्वारा बनाई गई ऋतु है | पढ़ती नहीं किताबों , पत्रिकाओं में कि कवी , लेखाकगन कितने सुहावने प्रतीकों से आदरपूर्वक संबोधन देते है उसे ... और एक तुम बासंती मौसम को चुटकी का मेल समझ रही हो |’
‘’ देखो जी, अभी मेरा सारा ध्यान बच्चों के भविष्य को लेकर केन्द्रित है |’’
‘’ अच्छा बताओ , तुम मुझ पर कब तक ध्यान दोगी ?’
‘’ जब बच्चे अपने पैरों पर खड़े होकर ब्याहे जाएंगे |’’
‘’ तब तक मैं...?’’
‘’ इंतज़ार करो |’
‘’ तो मरने के काल में तुम मुझे प्यार दोगी?’
‘’ विदाई कल में किसी का दिया प्यार कई जन्म तक याद रहता है ,अगले जन्म में भी मिलन हेतु बेचैन करता है |’’
दूसरे जन्म में तुम्हारा होकर क्या मैं पुन: अपना बंटाधार करवाउंगा ?’’
‘’ और नहीं तो क्या | इसी आते-जाते बसंत की तरह सात जन्म तक |’’
मुस्कराकर पत्नी ने हमें चूम लिया | एक क्षण को लगा कि पत्नी भी हौले-हौले बासंती रंग में आ गई है | मैं सच कहूं , पूरे विश्वास से उसके मूड के बारे में कुछ नहीं कह सकता |अभी वह बासंती मूड में है लेकिन अगले क्षण .............!


    सुनील कुमार ‘’सजल’’ 

शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

व्यंग्य – प्यार में चाँद

व्यंग्य – प्यार में चाँद

 वो ज़माना गुजर गया साब | जब प्रेमी लोग चाँद के पार जाने की सोचते थे | भले ही मुंह जुबानी |कल्पनाओं के पंख लगाकर ही सही |पर चाँद या चाँद के पार से कम बात नहीं होती थी | प्रेमिका भी इन्हीं कल्पनाओं के आकाश की बात सुनकर फूले नहीं समाती थी | ऐसे लट्टू हो जाती थी | मानो चाँद पर खडी है | चाँद का धरातल तो देखा नहीं | बस सूना है चाँद के बारे में | वहां गड्ढे खाई होती हैं | चाँद पर नहीं गए तो क्या | अपने गाँव के बंजर क्षेत्र में बनी ऊबड़-खाबड़ , सड़कें और उसके आजू- बाजू खाईयां गड्ढे , उड़ती धूल सचमुच चाँद की याद दिला देती हैं | यहाँ खड़े होकर चाँद की कल्पाना की जा सकती है |
  प्यार को बढाने व प्रेमिका पर गिरफ्त बढाने के लिए कुछ अलटप्पू टाइप बातें तो होनी चाहिए न |
  आपने वह पुराना गीत तो सूना होगा | चलो दिलदार चलो , चाँद के पार चलो | उस जमाने में प्यार की बातें तो होती थी | प्रेमी – प्रेमिका भले ही चाँद पर नहीं पहुचे पर वैज्ञानिक पहुंचे | वहां की जो बातें बतायी | वे प्रेमी- प्रेमिका के बीच प्यार को चटपटा बनाने के काम आयी | सो प्रेमी – प्रमिका दो कदम और आगे बढे | सपनों की दुनिया | अब कहने लगे | तू काहे तो तेरे कदमों में चाँद – सितारों को लाकर रख दूं | मानो पड़ोसी के बगीचे से चम्पा- चमेली या गुलाब चुराकर प्रेमिका के बालों में खोसने वाली बात हो | ऎसी ही बातें होती थी | पहले प्यार के नाम पर | ईस्टमेन कलर वाली फिल्म की तरह |
   अब दुनिया बदल चुकी है | चाँद- सितारों वाली बातें मायने नहीं रखती | अब तो प्रेमी- प्रेमिका किसी बड़े शहर की और फरार होकर अपने प्यार को अंजाम देते हैं | इसका कारण यह भी हो सकता है कि चाँद पर जाने के लिए अरबों रुपये चाहिए | एक सामान्य भारतीय की इतनी औकात नहीं कि वह चाँद पर जाने की कल्पना भी कर सके | यहाँ तो कई बार चौपाटी पर मसाला चाट वा पानी- पूरी खाने के लिए भी जुगाड़ लगाना पड़ता है |
   फिर और क्या करते हैं प्रेमी ? शहरी विकास प्राधिकरण के पार्कों में मिल-जुलकर या टाइम पास कर स्वर्ग से सुन्दर स्थलों की कल्पना कर देते हैं | एक दिन ऐसे ही गाँव से भागकर आए प्रेमी जोड़े शहर में निवासरत हुए प्रेमिका ने कहा – ‘ कभी तो कोई अच्छी  जगह घुमा दिया करो | एक जगह रहते हुए जी ऊबता है |’’
  ‘’ यार कहाँ घुमा दें | दूसरों की चाकरी करके तो पेट भर रहे हैं | बस इत्ता समझों कि हमने प्यार किया और वह सफल हो गया | वरना गाँव  में एक दूसरे की शक्ल देखना भी गुनाह हो गया था | प्रेमी ने कहा |
‘’ पर ऐसे  प्यार से  क्या होता है | प्यार का मतलब तो ऐश करना होता है न | ‘’ प्रेमिका में  शहरी आवो-हवा व टी.वी. सीरियल्स देखकर आधुनिक सोच के अंकुर फूटे थे |
‘’ यार, कुछ दिन तो कमाई कर लेने दो | फिर तुम्हें ऊंटी, कुल्लू मनाली , गोवा जहां कहोगी वहां घुमाने ले जाऊंगा | प्रेमी ने सांत्वना देने की कोशिश की |
  साब आज के दौर में ऐसी ही बातों का खूब चलन है प्यार की पंचायत में | जैसे कि पहले चाँद पर जाने वाली बातें अच्छी लगती थी | इधर विवाहित जोड़ों में नई संकल्पना विक्सित हुई है | पति महोदय को अपने –अपने पैतृक स्थान से बेहतर ससुराल अच्छी लगती है | अब चाँद के पार को यूँ गुनगुनाते हैं | ‘ चलो दिलदार चलो ,ससुराल( पत्नी का मायका) चलो |


               सुनील कुमार ‘सजल’’

शनिवार, 12 सितंबर 2015

व्यंग्य- साहब का हिन्दी प्रेम


व्यंग्य- साहब का हिन्दी  प्रेम

इन साहब को अच्छी हिन्दी  सीखने का शौक लगा है |अच्छी हिंदी सीखने के पीछे का रहस्य यह है किउन्हें अच्छी हिन्दी  आती नहीं |वैसे वे हिन्दीभाषी क्षेत्र में पैदा हुए हैं पर न जाने क्यों |हिन्दी शीखाने को तरस गए |                         
     साहब को मराठी ,तमिल, अंग्रेजी अच्छी तरह आती है पर हिन्दी नहीं आती | ऐसा साहब कहते हैं |   साहब की दृष्टि में हिन्दी व् साली में ज्यादा फर्क नहीं है | वे कहते कहते हैं , जैसे वे आज तक अपनी साली का स्वभाव नहीं समझ पाए | वैसे ही हिन्दी को |
      साहब की मम्मी अहिन्दी भाषी है | उनकी मां को मम्मी का संबोधन हमने इसलिए दिया , क्योंकि उन्हें हिन्दी से वैसे ही नफ़रत रही है , जैसे आधुनिक महिलाओं को माथे पर लगायी जाने वाली बिन्दी से |
      हमारे साहब के बच्चे कान्वेंट में पढ़ते हैं | पर साहब का हिन्दी से ऐसा मोह है कि वे हांडी में हस्ताक्षर करते हैं | हमें तो लगता है वे हिन्दी की चापलूसीवश  हिन्दी में हस्ताक्षर करते हैं | वैसे हिन्दी के क्षेत्रों में अधिकाँश अवार्ड चापलूसी पर ही मिलते हैं | यूं तो उनकी जुबान में ज्यादातर अंग्रेजी शब्द ही बसते हैं | साहब का हिन्दी शीखाने का शौक प्रबलता पर है | इस हेतु वे नाना प्रकार के शब्दकोश भी बाजार से उठा लाए हैं |
    वैसे हमने सूना किउनकी पत्नी कवियित्री है | हिन्दी में कवितायेँ लिखती हैं | कविताओं की जतिलाताएं उनकी समझ में नहीं आती | अखबार वाले पत्नी की कवितायें छाप रहें हैं | मांग-मांगकर छपते हैं | वे ऐसा किस दबाव या स्वार्थ में करते हैं यह तो अखबार वाले ही जानें |
     पिछले दिनों उच्च कार्यालय से हिन्दी दिवस मनाने के आदेश प्राप्त हुए | साहब चिंतित थे हिन्दी में भाषण देने को लेकर | वह भी शुध्द हिन्दी में | उनकी जुबान आमतौर पर अंग्रेजी ही बोलती है | उन्हें डर है | भाषण के दौरान अंग्रेजी उनकी जुबान पर न आ जाए , सीमा पर घुसपैठिए की तरह |
     साब ने शर्मा बाबू को बुलाकर कहा-‘’ यार, शर्मा आप तो ब्राम्हण हो | हिन्दी, संस्कृत का अच्छा ज्ञान रखते हो | हमारे लिए हिन्दी दिवस पर एक शानदार भाषण तैयार करो |’’
   ‘’क्या लिखें साहब |’’
  ‘’ हिंदी की बढ़ोतरी के लिए मस्केबाजी , और क्या |’’
  ‘साहब अपन तो फाइलों में कीड़े की तरह रेंगते रहते हैं |अच्छा यह है सर किआप गुप्ताजी से लिखवा लें | वे अच्छे व्यंग्यकार भी हैं पर साहब मदम तो स्वयं लेखिका हैं | उनसे क्यों नहीं लिखवाते आप |’’
  ‘’ यार वह सिर्फ कवितायें लिखती हैं और जो लिखती हैं वह मेरे सर के ऊपर से गुजरता है | ‘’ साहब ने कहा |
  साब ने गुप्ताजी को बुलाकर भाषण लिखने का प्रस्ताव रखा | वे टालमटोल कर गए –‘’ ‘’ साब मैं भाषण नहीं लिखता | सिर्फ व्यंग्या लिखता हूँ | आप कहें तो लिख दूं |’’
   ‘’सर पर बचे बाल को भी उड़ाना चाहते हो ?’’
    गुप्ताजी तुरंत खिसक लिए |    हिंदी दिवस करीब आ रहा है | साहब चिंतित हैं | भाषण को लेकर | देखते है किसका लिखा भाषण पढेंगे | स्वयं का या पत्नी का, यह तो उसी दिन पता चलेगा |
                सुनील कुमार ‘’सजल’’