शीत प्रकोप लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
शीत प्रकोप लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 15 नवंबर 2015

व्यंग्य – शीत ऋतु के तेवर


 व्यंग्य – शीत ऋतु  के तेवर



शरद ऋतु के आते ही मोहल्ले में प्रात:कालीन भ्रमण का उत्सव – सा आ जाता है | प्रात:काल घूमने वालों में कुछ शौकिया तो कुछ मन मसोसकर खांसते – खखारते मजबूरी वश घूमने जाने वाले ही होते हैं | कारण कि किसी तरह तन को ठीक – ठाक रखना है तो रजाई को फेंक कर उठाना पडेगा , वरना बीमारियाँ उन्हें ओढ़ लेगी |
इस तरह के घूमने वालों में बच्चे – जवान ज्यादा होते हैं | बूढों का वर्ग भी होता है | उनका ध्यान मौसम की प्रतिक्रया की बजाय दूसरों के आँगन - बगीचे में लगे फल-फूल पर ज्यादा होता है |
 वैसे यही मौसम होता है जब लोग आठ माह अन्य ऋतुओं से संघर्ष करने हेतु खूब खाते और बदन बनाते हैं | आयुर्वेद ने भी इस ऋतु को खाने पचाने वाली ऋतू कहा है | परसों पड़ोस के सयाने दादा कहा रहे थे –‘’ खूब खाओ , मौज उडाओ | बादाम मेवा ,खोआ , घी दूध सब कुछ पचाव | अभी जवान हो अभी खाकर हड्डी मजबूत नहीं करोगे तो क्या बुढापे में करोगे |
हमने कहा- ‘’ दादा इस महंगाई में क्या हड्डी मजबूत करें | खान-पान इतना महँगा हो गया है कि जवानी भी समय से पूर्व बुढापे में तब्दील होती नजर आ रही है |’
वे हंसते हुए कहने लगे –‘’ और हम बताये थे कि अमुक पार्टी को वोट मत दो |’’ हम समझ गए दादा का मंतव्य क्या है | पर फालतू बहस कौन करे | सो हम चुप रहे |
बरसात से क्या खोया क्या पाया के आंकलन के पश्चात सरकार व उनसे जुड़े लोग भी राहत कार्य के नाम खाने पचाने का मौसम बनाते हैं | फिर नए राहत कार्य खुलते हैं | गरीब मजदूरों की मजदूरी या फर्जी मस्टर रोल के सहारे नए-नए जुगाड़ ढूंढें जाते हैं | इस तरह यह ऋतु राजनैतिक हलकों के लिए खाने पचाने की बन जाती है |
  परसों वे बता रहे थे –‘’ सत्तापक्ष में शीत युद्ध चल रहा है |’
हमने कहा- ‘’ क्या ऋतु का असर सत्तासीन सरकार पर भिऊ पड़ता है |’
वे बोले –‘’ क्यों नहीं  | दरअसल कुर्सी पाने पाने  के लिए कुछ विधायाकगण माहौल  गरम कर रहें थे | वे मंत्री बनाना चाह रहे थे मगर सत्तासीन मुखिया उन्हें दबाने के लिए शीत उपक्रम अपना रहे थे | इसलिए उठा-पटक शुरू हो गयी और बेमौसम बादलों के ‘’ बागी’’ बरसने की तैयारी में लग गए |
‘’ वे क्या बादलों की तरह नहीं गल रहे  हैं |’’
‘’ गलेंगे कैसे नहीं | मुखिया जी ‘’ शीत प्रकोप ‘’ बढाने का उपाय कर रहे हैं | मगर आगे देखो क्या होता है |’’
 तभी हमने अंदाजा लगाया | शीत का महत्त्व सिर्फ स्वास्थ्य की दृष्टि से नहीं राजनैतिक प्रशासनिक दृष्टि से भी होता है |
 सरकारी असपतालों में पहुँचाने वाले मरीजों की संख्या कम होती जाती है | जिसका फ़ायदा वहां का ‘’ स्टॉफ ‘’ उठाता है | दवा मरीजों से बचाकर सीधे ‘’ मार्किट सफ्लाई’’ कर जेब गरम कर लेता है आखिर ठण्ड से बचने के लिए गरमी यानी खाने पीने की व्यवस्था  तो आवश्यक है न |
इसी तरह दफ्तरों में जनता के अधिकाँश प्रकरण ‘’ ठन्डे बसते ‘ में बंद होने के कारण ‘’ लेट लतीफी ‘’ की रजाई ओढ़कर दब जाते हैं | बाबू- अधिकारी लोग कुनकुनी धुप का आंनंद उठाते हुए यूँ कहा देते हैं –‘’ आज तो शीत का जबरदस्त प्रकोप है | आज परेशान न करो |’’
‘’ अरे बाबूजी चाय वगैरह या काफी ग्रहण कर काम निपटा दो |’’
‘’ इत्ते से तो शारीर में झुनझुनी नहीं चढ़ेगी यार | अगर काम जल्दी कराना चाहते हो तो कुछ ‘’ गरम मसाला’’ के साथ बोतल छाप ‘’ काफी ‘’ की व्यवस्था करो तो सोचें |’’
अब आवेदक की क्षमता पर निर्भर करता है कि बाबू और अधिकारियों को शीत से उबारे या कार्य को ठंडा पडा रहने दे |
 वह मौसम उनके लिए महत्त्व रखता है | जो बेचारे प्रेम के मारे होते हैं | ‘’ रात भर करवट बदलते हुए पहाड़ी रात काटकर सुबह प्रेमी , प्रेमिका का ‘’ प्रभुदर्शन’ अंदाज में दर्शन हेतु परत: कालीन भ्रमण का बहाना ढूंढ निकालते हैं | और कुछ तो मौक़ा पाकर अपनी चोंच भी मिला लेते हैं |
इधर मैं कुछ दिनों से परेशान हूँ | घर में चलते स्वेटर बुनाई कार्यक्रम से मेरी जेब ठंडी होती नजर आ रही है | पत्नी के नित्य नए किस्मों की उन खरीदी से मैं बेमौसम पसीना-पसीना हुआ जाता हूँ |
रोक लगाने पर जवाब मिलता है ‘’ पिछले साल की बुनी स्वेटर अब तो यूँ ही लगती है जैसे गधे  के बाल झड गए हों और पहनकर तुम निकलते तो मुझे बड़ी शर्म आती है | मोहल्ले में इमेज का सवालक है सबके घरों नई स्वेटर बुनी जा रही हैं तो अपना घर अछूता क्यों रहे |
अत: हर क्षेत्र के अनुभव ग्रहण करने के पश्चात मैं दावे के साथ कहा सकता हूँ ‘’ शीत ऋतु’ तेवर दिखाने में किसी बोल्ड सीन देने वाली हिरोइन की तरह भूमिका निभाती है | आपकी क्या राय है अवगत कराईयेगा .........|

           सुनील कुमार ‘सजल’